पृथिव्यां कुम्भयोगस्य चतुर्धा भेद उच्यते।
चतुस्थले च पतनाद् सुधा कुम्भस्य भूतले।।
विष्णु द्वारे तीर्थराजेवन्त्यां गोदावरी तटे।
सुधा बिन्दु विनिक्षेपाद् कुम्भपर्वेति विश्रुतम्।।
कुंभ की परंपरा के पीछे अमृत के गिरने की कथा जु़ड़ी हुई है। हरिद्वार,
तीर्थराज प्रयाग, उज्जैन और नासिक इन चार प्रमुख स्थलों पर अमृत-कुंभ से
छलकी हुई बूंदों के कारण कुंभ जैसे महापर्व को मनाये जाने की परंपरा का
उल्लेख मिलता है।
तस्यत्कुम्भात्समुत्कि्षप्त सुधाबिन्दुर्महीतले।
यत्रयत्रात्यतत्त कुम्भपर्व प्रकल्पितम्।।
अमृत-कुंभ की रक्षा में संलग्न चन्द्रमा ने अमृत को गिरने से बचाया,
सूर्य ने घड़े को टूटने से, बृहस्पति ने दैत्यों द्वारा छीनने से और शनि ने
कहीं जयंत अकेले ही संपूर्ण अमृत पान न कर ले, इस तरह से उस कुंभ की रक्षा
की।
चन्द्र: प्रस्त्रवणाद् रक्षा सूर्योविस्फोटना दधौ।
दैत्येभ्यश्च गुरु रक्षा सौरि देवेन्द्रजात् भयात्।।
इन्हीं ग्रहों के परस्पर संयोग होने पर कुंभ पर्व का योग भिन्न-भिन्न
स्थलों पर हुआ करता है। हरिद्वार में कुंभ राशिका बृहस्पति हो,और मेष में
सूर्य संक्रांति हो तो यह कुंभ का महापर्व हुआ करता है।
कुम्भ राशि गते जीवे यद्विदने मेषगो रवि:।
हरिद्वारे तं स्नानं पुनरावृत्ति वर्जनम्।।
मान्यताओं के अनुसार विद्वानों का मत है कि सनातन, सनक, सनंदन व
सनत्कुमार जैसे महागणों की मंडली बारह वर्षो के बाद हरिद्वार, प्रयाग आदि
तीर्थो में पधारा करती है, उनके दर्शन हेतु साधु- संत- महात्मा, श्रद्धालु
और सामान्य भक्तजन भी उपस्थित होने लगे। योग साधना करने वाले योगियों की
अवधि भी बारह वर्षो की बतायी गई है। इन्हीं वर्षो के फलस्वरूप कुंभ जैसे
पर्व का समागम होता है।
देवानां द्वादशैर्भिमत्र्यैद्वादशवत्सरै:।
जायन्ते कुम्भ पर्वाणि तथा द्वादश संख्यया।।
आध्यात्मिक दृष्टि से कुंभ महापर्व का महत्व ज्योतिष शास्त्र में अत्यंत
विस्तृत है। भारतीय ज्योतिषशास्त्र में बृहस्पति को ज्ञान का, सूर्य को
आत्मा का और चंद्रमा को मन का प्रतीक माना गया है। मन,आत्मा तथा ज्ञान इन
तीनों की अनुकूल स्थिति वस्तुत: लौकिक और पारलौकिक दोनों दृष्टियों से
महत्व रखती है। चार स्थलों पर लगने वाले कुंभ की तिथि इन विशिष्ट ग्रहों
सूर्य, चन्द्र और बृहस्पति की स्थिति विशेष होने पर ही संभव होती है।
भारतीय संस्कृति में कुंभ सृष्टि का प्रतीक माना गया है। जैसे कुंभकार पंच
तत्वों से कुंभ की संरचना करता है, उसी प्रकार ब्रंा भी पंच तत्वों से इस
सृष्टि की सर्जना करते हैं। कुंभ के विषय में कहा गया है-
कलशस्य मुखे विष्णु, कण्ठे रुदो समाहिता:।
मूले तत्र स्थियो ब्रंा मध्ये मातृगणा: स्मृता:।।
कुक्षो तु सागरा: सर्वे सप्तद्वीप वसुंधरा।
ऋग्वेदोथ यजुर्वेदो सामवेदो अथर्वव:।।
अंगै:श्च संहिता: सर्वे कलेश तु समाश्रित:।।
अर्थात कलश के मुख में विष्णु, कंठ में रुद्र, मूल में ब्रंा,मध्य में मातृगण,
अंतवस्था में समस्त सागर, पृथ्वी में निहित सप्त दीप तथा चारों वेदों का
समन्वयात्मक स्वरूप विद्यमान है। इस श्लोक के मध्य में मातृगणों के
विद्यमान होने का उल्लेख है। मातृकाएं सोलह होती हैं। चंद्रमा की भी षोड्श
कलाएं होती हैं। कुंभ भगवान विष्णु का पर्याय भी कहा गया है। यह प्रख्यात
कुंभ शब्द कुभि आच्छदने धातु से निष्पन्न होता है। परमात्मा अपने ऐश्वर्य
से समस्त विश्व को आवृत्त किये रहता है। इसी लिए वह कुंभ कांतै धातु से
जोड़ने पर अमृत प्राप्ति की कामना का बोध होता है। कुंभ को पेट, गर्भाशय,
ब्रंा, विष्णु की संज्ञा से अभिहित किया गया है। लोक में कुंभ, अ?र्द्धकुंभ
पर्व के सूर्य, चंद्रमा तथा बृहस्पति तीन ग्रह कारक कहे गये हैं। सूर्य
आत्मा है, चंद्रमा मन है और बृहस्पति ज्ञान है। आत्मा अजर,अमर नित्य और
शांत है, मन चंचल, ज्ञान मुक्ति कारक है। आत्मा में मन का लय होना, बुद्धि
का स्थिर होना, नित्य मुक्ति का हेतु है। ज्ञान की स्थिरता तभी संभव है, जब
बुद्धि स्थिर हो। दैवी बुद्धि का कारक गुरू है। बृहस्पति का स्थिर राशियों
वृष, सिंह, वृश्चिक एवं कुंभ में होना ही बुद्धि का स्थैर्य है। चन्द्रमा
का सूर्य से मुक्त होना अथवा अस्त होना ही मन पर आत्मा का वर्चस्व है।
आत्मा एवं मन का संयुक्त होना स्वकल्याण के पथ पर अग्रसर होना है। कुंभ
अर्धकुंभ को हम शरीर, पेट, समुद्र, पृथ्वी, सूर्य, विष्णु के पर्यायों से
संबद्ध करते हैं। समुद्र, नदी, कूप आदि सभी कुंभ के प्रतीक हैं। वायु के
आचरण से आकाश, प्रकाश से समस्त लोकों को आवृत्त करने के कारण सूर्य नाना
प्रकार की कोशिकाओं से तथा स्नायुतंत्रों से आवृत्त होता है। इसी लिए कुंभ
है। कुंभ को सागर भी कहा जाता है और इसी कारण सागर मंथन की कथा भी प्रसिद्ध
गाथा है। इसके पहले कहीं गई दुर्वासा की कथा में भी समुद्र मंथन का प्रसंग
समाहित है। इसलिए भी उनका मूल्य बढ़ जाता है।
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