अपार
करुणामूर्ति जगज्जननी भगवती शिवा और शिव ही समस्त सृष्टि के
स्रष्टा हैं । इनकी कृपा से ब्रह्मादि देव आविर्भूत होकर
आदेशानुसार सृष्टि , स्थिति और संह्यति में प्रवृत्त होते हैं ।
अखिल ब्रह्मांडनायिका भगवती एवं अखिल ब्रह्मांडनायक भगवान् एकरुप
होते हुए भी लोकानुग्रह के लिए द्विधा रुप ग्रहण करते हैं और
दिव्य दम्पत्ति के रुप में शब्दर्थमयी सृष्टि को भी विकसित करते
हैं । ये ही ब्रह्मस्वरुप हैं । इन्हीं के संवाद रुप में
तंत्र सामने आया ।
वस्तुतः ब्रह्मा , विष्णु तथा शिव में कोई भेद नहीं हैं । लोक
- कल्याण की उदार भावना से परस्पर संवाद रुप में , प्रश्नोत्तर
रुप में कर्तव्य कर्मों का चिंतन प्रस्तुत करते रहे हैं । यह
आवश्यक भी है , क्योंकि माता - पिता ही यदि बालकों की शिक्षा -
व्यवस्था न करें तो और कौन करे ? जब स्वयं ब्रह्मादि देव भी
प्रादुर्भूत होने के पश्चात् अबोध की भांति कोऽहं , कुतः आयातः , को मे जननी , को मे तातः ? इत्यादि नहीं जान पाए तो उन्हें भी इन्हीं ने कृपापूर्वक ज्ञान दिया था ।
कैलासवासी श्रीशिव
कैलासे शिखरे रम्ये नानारत्नोपशोभिते ।
नाना द्रुमलताकोर्णे नानापक्षिरवैर्युतः ॥ विविध प्रकार के रत्नों से शोभायमान , विविध प्रकार के वृक्षों एवं लताओं से युक्त , विविध प्रकार के पक्षियों के स्वरों से गुंजारित कैलास पर्वत का अत्यन्त रमणीय शिखर है ।
कैलासे शिखरे रम्ये नानारत्नोपशोभिते ।
नाना द्रुमलताकोर्णे नानापक्षिरवैर्युतः ॥ विविध प्रकार के रत्नों से शोभायमान , विविध प्रकार के वृक्षों एवं लताओं से युक्त , विविध प्रकार के पक्षियों के स्वरों से गुंजारित कैलास पर्वत का अत्यन्त रमणीय शिखर है ।
सर्वर्तुः कुसुमामोदं मोदिते सुमनोहरं ।
शैत्य - सौगन्ध्य - मन्दाढ्यैर्मरुदभि रुपवीजिते ॥ जहां समस्त ऋतुएं सुन्दर पुष्पों से युक्त हैं तथा जहां शीतल - सुगान्धित एवं मनमोहक वायु मन्द - मन्द गति से प्रवाहित हो रही है ।
शैत्य - सौगन्ध्य - मन्दाढ्यैर्मरुदभि रुपवीजिते ॥ जहां समस्त ऋतुएं सुन्दर पुष्पों से युक्त हैं तथा जहां शीतल - सुगान्धित एवं मनमोहक वायु मन्द - मन्द गति से प्रवाहित हो रही है ।
अप्सरो गणसंगीत कलध्वनि निनादिते ।
स्थिरच्छायद्रुमच्छायाच्छादिते स्निग्ध मंजुले ॥ जहां अप्सराओं की सुन्दर ध्वनियां गूंज रही हैं , जहां वृक्षों की अनन्त छाया व्याप्त हैं ।
स्थिरच्छायद्रुमच्छायाच्छादिते स्निग्ध मंजुले ॥ जहां अप्सराओं की सुन्दर ध्वनियां गूंज रही हैं , जहां वृक्षों की अनन्त छाया व्याप्त हैं ।
मत्तकोकिलसंदोह संघुष्टविपिनान्तरे ।
सर्वदा स्वर्गणः सार्ध ऋतुराजनिषेविते ॥ जिस ( पर्वत ) का वन मध्य प्रदेश प्रमत्त कोकिला के मधुर कूकों से मन मोह रहा है , कूजित हो रहा है , जहां ऋतुराज बसन्त सदैव अपने साथियों के साथ जिनकी सेवा में तत्पर रहता है ।
सर्वदा स्वर्गणः सार्ध ऋतुराजनिषेविते ॥ जिस ( पर्वत ) का वन मध्य प्रदेश प्रमत्त कोकिला के मधुर कूकों से मन मोह रहा है , कूजित हो रहा है , जहां ऋतुराज बसन्त सदैव अपने साथियों के साथ जिनकी सेवा में तत्पर रहता है ।
सिद्धचारण गन्धर्वैगाणपत्यगणैर्वृते ।
तत्र मौनधरं देवं चराचरजगदगुरुम् ॥
तत्र मौनधरं देवं चराचरजगदगुरुम् ॥
जो सिद्ध चारण गन्धर्व गणपति अपने गणों व षडानन
के साथ निवास करते थे । ऐसे सुन्दर कैलास के शिखर पर जगत्
के गुरु श्री शिवजी मौन धारण किए वास करते हैं ।
सदाशिवं सदानन्दं करुणाऽमृतसागरम् ।
कर्पूरकुन्दधवलं शुद्धं सत्वगुणमयं विभुम् ॥
शिवजी कल्याण करने वाले हैं , करुणा निधान हैं ,
आनन्दित करने वाले हैं , अमृत के अथाह सागर हैं , कपूर एवं कुन्द
की भांति धवल सतोगुणी प्रभु पवित्र एवं गुणों से युक्त हैं ।
दीगम्बरं दीनानाथं योगीन्द्रं योगिवल्लभम् ।
गंगाशीकर संसिक्तंजटामण्डल मण्डितम् ॥
दस दिशामय वस्त्र धारण किए हुए दीनानाथ , योगीराज
, योगियों के प्रिय , जिनकी जटाएं गंगा के जल से सदा भीगी रहती
हैं ।
विभूतिभूषितं शान्तं व्यालमालं कपालिनम् ।
त्रिलोचनं त्रिलोकेशं त्रिशूलवरधारिणम् ॥
जिनके समस्त अंगों में भस्म विभूषित हो रही हैं
। अत्यन्त शान्त स्वरुप हैं , ये त्रिलोकी नाथ ( गले में )
मुण्ड तथा सर्पों की माला धारण किए हैं तथा हाथ में त्रिशूल और
वर मुद्रा पकड़े हुए हैं ।
आशुतोषं ज्ञानमयं कैवल्यफलदायकम् ।
निरातंकं निर्विकल्पं निर्विशेषं निरंजनम् ॥
अतिशीघ्र प्रसन्न होने वाले ज्ञान स्वरुप भगवान आशुतोष मोक्षदाता , निर्विशेष एवं साक्षात् स्वरुप हैं ।
सर्वेषां हितकारं देवदेवं निरामयम् ।
अर्द्धचन्द्रोज्ज्वलदभालं पञ्चवक्त्रं सुभूषितम् ॥
सब प्राणिमात्र का कल्याण करने वाल्व , हितैषी ,
निरामय , देवों के देव महादेव , अर्द्ध चन्द्रमा की ' चन्द्रिका '
जिनके मस्तक पर सुशोभित रहती है , सुन्दर आभूषणों से संपन्न
पंचानन ( पांच मुख वाले ) हैं ।
प्रसन्नवदनं वीक्ष्य लोकानां हितकाम्यया ।
विनयेन समायुक्तो रावणः शिवमब्रवतीत् ॥
उन सदाशिव भगवान को अत्यन्त प्रसन्न मुख देखकर
लोगों के हित की अभिलाषा से विनम्र होकर लंकाधिपति रावण भगवान
शंकर से पूछता है ।
No comments:
Post a Comment