Monday, 18 June 2012

नारद भक्ति सूत्र

     नारद भक्ति सूत्र ।
> अब भक्ति की व्याख्या ॥१॥
> वह तो ईश्वर में परम प्रम रूपा है ॥२॥
> और अमृत स्वरूप है ॥३॥
> (उसे) पाकर मनुष्य सिद्ध हो जाता है, अमर हो जाता है, तृप्त हो जाता है ॥४॥
> (उसके) प्राप्त होने पर न किसी वस्तु की इच्छा करता है, न शोक करता है,
द्वेष
>
करता है, न विषयों में रमण करता है तथा न ही विषयों के प्राप्त करने का
उत्साह
>
ही करता है ॥५॥
> जिस को जान कर (भक्त) उन्मत हो जाता है, स्तब्ध हो जाता है (कभी) आत्मरमण
करने
>
लगता है ॥६॥
> परम-प्रम-रूपा भक्ति कामना युक्त नहीं है क्योंकि वह निरोधस्वरूपा है ॥७॥
> लौकिक कर्मों का त्याग निरोध है ॥८॥ (कर्म का त्याग तो नहीं किया जा सकता
यहाँ
>
अर्थ कर्मासक्ति त्याग से है)
> उस (न्यास, त्याग) में (भगवान के प्रति) अनन्यता तथा उस के विरोधी विषय में
>
उदासीनता को निरोध कहते हैं ॥९॥
> (एक प्रभु को छोड़कर) अन्य आश्रयों का त्याग अनन्यता है ॥१०॥
> लौकिक तथा वैदिक कर्मों में उस के (त्याग के) अनुकूल कर्म करना ही उस के
(
त्याग
>
के) विरोधी कर्मों में उदासीनता है ॥११॥
> परम-प्रम-रूपा भक्ति की प्राप्ति दृढ़निश्चय हो जाने के पश्चात भी शास्त्र
रक्षा
>
करनी चाहिये ॥१२॥
> (नहीं तो संस्कारों, वासनाओं के कारण) गिरने की आशंका बनी रहती है ॥१३॥
> लोक बंधन भी तब तक ही रहता है, किन्तु भोजनादि व्यापार शरीर धारण पर्यन्त
चलता
>
है ॥१४॥
> अब नाना मतभेद से (भक्ति) के लक्षण कहते हैं ॥१५॥
> पूजा आदि में अनुराग भक्ति है, ऐसा पाराशर (वेद व्यास जी) कहते हैं ॥१६॥
> गर्ग जी के अनुसार भक्ति, कथा आदि में ( अनुराग है ) ॥१७॥
> शाण्डिल्य के मतानुसार, आत्मरति का अवरोध भक्ति है ॥१८॥ (आत्मतत्व की ओर ले
>
जाने वाले विषयों में अनुराग भक्ति है )।
> नारद जी के मतानुसार अपने सकल आचरण से उसी के समर्पित रहना तथा उसके विस्मरण
हो
>
जाने पर व्याकुल हो जाना भक्ति है ॥१९॥
> यह ही भक्ति है ॥२०॥
> जैसे व्रज की गोपिकाएं ॥२१॥
> उसमें (गोपी प्रेम में) भी माहात्म्य ज्ञान (परमार्थ ज्ञान) का अपवाद नहीं था
>
॥२२॥
> उससे विहीन (भक्ति), जार भक्ति (हो जाती है) ॥२३॥
> उसमें (जार प्रेम में) वह (परमार्थ) सुख नहीं है ॥२४॥
> वह तो कर्म, ज्ञान तथा योग से अधिक श्रेष्ठ है ॥२५॥
> क्योंकि भक्ति फल रूपा है ॥२६॥ (सब साधना इसके लिए ही हैं )।
> ईश्वर को भी अभिमान से द्वेष भाव है तथा दीन भाव प्रिय है ॥२७॥
> उसका (परम-प्रम-रूपा भक्ति का ) साधन ज्ञान ही है, कुछ (आचार्यों) का मत है
>
॥२८॥
> दूसरे (आचार्यों) के मतानुसार भक्ति तथा ज्ञान एक दूसरे पर आधारित हैं ॥२९॥
> ब्रह्म कुमारों (सनत् आदि) का मत है कि भक्ति स्वयं फल रुपा है ॥३०॥
> राज दरबार में तथा भोजनादि में ऐसा ही देखा जाता है ॥३१॥ ( भूख दूर करने की
>
इच्छा कोई नहीं करता, भोजन करने की इच्छा करता है) ।
> न उससे ( केवल ज्ञान से ) न तो राजा को प्रसन्नता होगी न (आत्मा की)भूख शान्त
>
होगी ॥३२॥
> अतः (मुमुक्षुओं को, बंधन से छुटकारे चाहने वालों को) भक्ति ही ग्रहण करनी
>
चाहिए ॥३३॥
> उस (भक्ति) को प्राप्त करने के साधन (उपाय) बताते हैं ॥३४॥
> वह (भक्ति साधन ) तो विषय त्याग तथा संग त्याग से प्राप्त होता है ॥३५॥
> (अथवा) अखण्ड भजन से ॥३६॥
> लोक समाज में भी भगवद् गुण श्रवण तथा कीर्तन से ॥३७॥
> मुख्यतया महापुरुषों की कृपा से, या भगवद् कृपा के लेश मात्र से ॥३८॥
> परन्तु महापुरुषों का संग दुर्लभ, अगम्य तथा अमोध है ॥३९॥
> उसकी कृपा से ही मिलते हैं ॥४०॥
> क्योंकि भगवान तथा उसके भक्त में भेद का अभाव है ॥४१॥
> (इसलिए) उसकी ही साधना करो, उसकी ही साधना करो ॥४२॥
> दुसंग सर्वदा त्याज्य है ॥४३॥
> ( कुसंग) काम, क्रोध, मोह, स्मृतिभ्रंश, बुद्धिनाश एवा सर्वनाश का कारण है
॥४४॥
> यह (काम क्रोध मोह आदि ) पहले तरंग की तरह आकर समुद्र (की भान्ति) हो जाते
हैं
>
॥४५॥ (बहुत जल्दी मन को घेर लेते हैं ) ।
> कौन तरता है कौन तरता है, माया से? जो सब संगों का त्याग करता है, जो
>
महापुरुषों की सेवा करता है, जो ममता रहित होता है ॥४६॥
> जो निरजन स्थान का सेवन करता है, लौकिक बन्धनों को तोड़ देता है, तीनों गुणों
से
>
पार हो जाता है तथा जो योग और क्षेम का त्याग कर देता है ॥४७॥ (जो प्राप्त न
हो
>
उसकी प्राप्ती को योग और जो प्राप्त हो उसके संरक्षण को क्षेम कहा जाता है,
>
अर्थ है न कुछ पाने की इच्छा न पाए हुए को बचाए रखने की इच्छा ) ।
> जो कर्म फल का त्याग करता है, (वह) कर्मों का भी त्याग कर देता है, तथा
>
निर्द्वन्द्व हो जाता है ॥४८॥
> जो वेदों का भी त्याग कर देता है, केवल तथा अविच्छिन्न अनुराग ही रह जाता है
>
॥४९॥
> प्रेम का स्वरूप अनिर्वचनीय है ॥५०॥ (बताया नहीं जा सकता) ।
> गूंगे के स्वाद की तरह ॥५२॥
> किसी (योग्य ) पात्र में प्रकाशित होता है ॥५३॥
> यह (परम-प्रम-रूपा भक्ति) गुण रहित है, कामना रहित है, प्रति क्षण बढ़ती रहती
>
है, सूक्ष्मतर है तथा अनुभव रूप है ॥५४॥
> उस ((परम-प्रम-रूपा भक्ति) (शक्ति) को प्राप्त कर, (प्रेमी भक्त) उसी को
देखता,
>
उसी को सुनता, उसी की बात करता, तथा उसी का चिन्तन करता है ॥५५॥
> गौणी भक्ति गुण भेद से, तथा आर्तादि भेद से तीन प्रकार की होती है ॥५६॥(तामसी
>
याने दम्भी, राजसी याने कुछ पाने के लिए, सात्विकी याने चित्त शुद्ध करने के
>
लिए। आर्तभक्ति जगत भोग से मुक्ति के लिए, अर्थार्थी प्रभु को प्राप्त करने
के
>
लिए, जिज्ञासु प्रभु को पाने की तीव्र इच्छा- संयम की स्थिति से वैराग्य तक
>
पहुँचा ) ।
> पूर्व क्रम की भक्ति उत्तरोत्तर क्रम से श्रेयस्कर होती है ॥५७॥ (सात्विक
>
राजसिक से इत्यादि )।
> अन्य की अपेक्षा भक्ति सुलभ है ॥५८॥
> भक्ति स्वयं प्रमाण रूप है, अन्य प्रमाण की आवश्यक्ता नहीं ॥५९॥
> भक्ति शान्ति तथा परमानन्द रूपा है ॥६०॥
> लोकहानि की चिन्ता न करें क्योकि लौकिक तथा वैदिक (सभी कर्मों को ) प्रभु को
>
निवेदन कर देता है ॥६१॥
> (परन्तु) जब तक सिद्धि प्राप्त न हो (तब तक ) लोक व्यवहार हेय नहीं है किन्तु
>
फल त्याग कर कर्म करना, उसका (भक्ति का) साधन है ॥६२॥
> स्त्री, धन , नास्तिक तथा वैरी का श्रवण नहीं करना चाहिए ॥६३॥( स्त्री शब्द
से
>
वासना का प्रतीक है) ।
> अभिमान, दम्भ आदि का त्याग करना चाहिए ॥६४॥
> सब आचार भगवान को अर्पण कर देने पर भी यदि काम क्रोध अभिमानादि हों तो उन्हें
>
भी भगवान के प्रति ही करना चाहिए ॥६५॥
> तीन रूपों को भंग कर, नित्य दास अथवा नित्य कान्ता भक्ति से प्रेम करना ही
>
कार्य है, प्रेम करना ही कार्य है ॥६६॥ (तीन रूप का अर्थ स्वामी, सेवा और
सेवक,
>
या प्रियतमा, प्रियतम तथा प्रेम )।
> एकान्त भक्त ही मुख्य (श्रेष्ठ ) है ॥६७॥ ( एकान्त - जिसका प्रेम केवल भगवान
के
>
लिए हो )
> (ऐसे महापुरुष ) कण्ठावरोध, रोमाञ्च तथा अश्रुपूर्ण नेत्रों से परस्पर
सम्भाषण
> करते हुए अपने कुलों तथा पृथ्वी को पवित्र करते हैं ॥६८॥
> (ऐसे महापुरुष ) तीर्थों को सुतीर्थ, कर्मों को सुकर्म तथा शास्त्रों को सत्
>
शास्त्र करते हैं ॥६९॥
> वह तन्मय है ॥७०॥ (उसमें प्रभु के गुण परिलक्षित होने लगते हैं )।
> (ऐसे महापुरुष के होने पर )पितर प्रमुदित होते हैं, देवता नृत्य करने लगते
हैं
>
तथा पृथ्वी सनाथ हो जाति है ॥७१॥
> उन में जाति, विद्या, रूप, कुल, धन तथा क्रियादि का भेद नहीं होता ॥७२॥
> क्योंकि सभी भक्त भगवान के ही हैं ॥७३॥
> वाद विवाद का अवलम्ब नहीं लेना चाहिए ॥७४॥
> क्योंकि बाहुल्यता का अवकाश है तथा वह अनियत है ॥७५॥( विवाद भक्ति के लिए
नहीं
> ,
प्रतिष्ठा के लिए होते हैं )।
> (अब प्रधान सहाय्य )।
> भक्ति शास्त्रों का मनन, तथा उदबोधक कर्मों को करना ॥७६॥
> सुख दुख, इच्छा, लाभ, आदि का त्याग हो जाए, ऐसे समय की प्रतीक्षा करते हुए
आधा
>
क्षण भी व्यर्थ नहीं गवाना चाहिए ॥७७॥
> अहिंसा, सत्य, शौच, दया, आस्तिकता, आदि का परिपालन ॥७८॥
> सर्वदा, सर्वभावेन, निश्चिन्त, भगवान का ही भजन करना चाहिए ॥७९॥
> वह (भगवान) कीर्तित होने पर शीघ्र ही प्रकट होते हैं ( तथा भक्तों को ) अनुभव
>
करा देते हैं ॥८०॥
> तीनों सत्यों में भक्ति ही श्रेष्ठ है ॥८१॥ ( सत्य स्वरूप प्रभु को मन वाणी
तथा
>
तन से भक्ति ही प्राप्त करा सकती है )।
> एक होते हुए भी (भक्ति ) ग्यारह प्रकार की है । गुणमहात्म्यासक्ति ( जगत को
>
भगवान का प्रकट रूप जान कर उसमें आसक्ति), रूपासक्ति ( इन्द्रियातीत,
>
चैतन्यस्वरूप, आनन्दप्रद, सत् रूप में आसक्ति), पूजासक्ति, स्मरणासक्ति,
>
दास्यासक्ति (स्वयं को प्रभु का दास मान कर), साख्यासक्ति (प्रभु सबके मित्र
>
हैं ऐसा जानकर उसमें आसक्ति), कान्तासक्ति(एक प्रभु ही पुरुष हैं, बाकि सब
>
प्रियतमा हैं), वात्सल्यासक्ति(प्रभु को सन्तान मान कर ), तन्मयासक्ति (प्रभु
>
में तन्मय , उनसे अभिन्नता का भाव ),आत्मनिवेदनासक्ति (प्रभु में सर्वस्व
>
समर्पण कर देने में आसक्ति )। परमविरहासक्ति (प्रभु से वियोग का अनुभव करके,
>
उनसे पुनः मिलन के लिए तड़प के प्रति आसक्ति)। ॥८२॥
> सभी भक्ति के आचार्य, जगत निन्दा से निर्भय हो कर, इसी एक मत के हैं। (सनत् )
>
कुमारादि, वेदव्यास, शुकदेव, शाण्डिल्य, गर्ग, विष्णु कौडिन्य, शेष, उद्धव,
>
आरूणि, बलि, हनुमान, विभीषण ॥८३॥
> जो इस नारद कथित शिवानुशासन में ( अर्थ यह शिव से शुरु हुई विद्या है, नारद
>
केवल ईसका कथन कर रहे हैं ) विश्वास तथा श्रद्धा रखता है वह प्रियतम को पाता
>
है, वह प्रियतम को पाता है ॥८४॥

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