Sunday, 30 June 2013

महर्षि अगस्त्य

महर्षि अगस्त्य से श्‍वेत की कथा सुनकर श्रीरामचन्द्र ने पूछा, "मुनिराज! कृपया यह और बताइये कि जिस भयंकर वन में विदर्भराज श्‍वेत तपस्या करते थे, वह वन पशु-पक्षियों से रहित क्यों हो गया था?"
रघुनाथ जी की जिज्ञासा सुनकर महर्षि अगस्त्य ने बताया, "सतयुग की बात है, जब इस पृथ्वी पर मनु के पुत्र इक्ष्वाकु राज्य करते थे। राजा इक्ष्वाकु के सौ पुत्र उत्पन्न हुये। उन पुत्रों में सबसे छोटा मूर्ख और उद्‍दण्ड था। इक्ष्वाकु समझ गये कि इस मंदबुद्धि पर कभी न कभी दण्डपात अवश्य होगा। इसलिये वे उसे दण्ड के नाम से पुकारने लगे। जब वह बड़ा हुआ तो पिता ने उसे विन्ध्य और शैवल पर्वत के बीच का राज्य दे दिया। दण्ड ने उस सथान का नाम मधुमन्त रखा और शुक्राचार्य को अपना पुरोहित बनाया।

"एक दिन राजा दण्ड भ्रमण करता हुआ शुक्राचार्य के आश्रम की ओर जा निकला। वहाँ उसने शुक्राचार्य की अत्यन्त लावण्यमयी कन्या अरजा को देखा। वह कामपीड़ित होकर उसके साथ बलात्कार करने लगा। जब शुक्राचार्य ने अरजा की दुर्दशा देखी तो उन्होंने शाप दिया कि दण्ड सात दिन के अन्दर अपने पुत्र, सेना आदि सहित नष्ट हो जाय। इन्द्र ऐसी भयंकर धूल की वर्षा करेंगे जिससे उसका सम्पूर्ण राज्य ही नहीं, पशु-पक्षी तक नष्ट हो जायेंगे। फिर अपनी कन्या से उन्होंने कहा कि तू इसी आश्रम में इस सरोवर के निकट रहकर ईश्‍वर की आराधना और अपने पाप का प्रायश्‍चित कर। जो जीव इस अवधि में तेरे पास रहेंगे वे धूल की वर्षा से नष्ट नहीं होंगे। शुक्राचार्य के शाप के कारण दण्ड, उसका राज्य और पशु-पक्षी आदि सब नष्ट हो गये। तभी से यह भूभाग दण्डकारण्य कहलाता है।"
यह वृतान्त सुनकर श्रीराम विश्राम करने चले गये। दूसरे दिन प्रातःकाल वे वहाँ से विदा हो गये।
(2)सीता के त्याग और तपस्या का वृतान्त सुनकर रामचन्द्रजी ने अपने विशिष्ट दूत के द्वारा महर्षि वाल्मीकि के पास सन्देश भिजवाया, "यदि सीता का चरित्र शुद्ध है और वे आपकी अनुमति ले यहाँ आकर जन समुदाय में अपनी शुद्धता प्रमाणित करें और मेरा कलंक दूर करने के लिये शपथ करें तो मैं उनका स्वागत करूँगा।"

यह सन्देश सुनकर वाल्मीकि ने कहलवाया, "ऐसा ही होगा। सीता वही करेंगीं जो श्रीराम चाहेंगे क्योंकि पति स्त्री के लिये परमात्मा होता है।"
यह उत्तर पाकर सीता शपथ के अवसर पर राजा राम ने सब ऋषि-मुनियों, नगरवासियों आदि को उस समय सभागार में उपस्थित रहने के लिये निमन्त्रित किया।
दूसरे दिन सीता जी का शपथ ग्रहण देखने के लिये नाना देशों से पधारे ऋषि-मुनि, विद्वान, नागरिक सहस्त्रों की संख्या में उस सभा भवन में आकर उपस्थित हो गये। निश्‍चित समय पर वाल्मीकि सीता को लेकर आये। आगे-आगे महर्षि वाल्मीकि थे और उनके पीछे दोनों हाथ जोड़े, नेत्रों में आँसू बहाती सीता आ रही थीं। वे मन ही मन श्रीराम का चिन्तन कर रही थीं। उस समय महर्षि के पीछे आती हुई सीता इस प्रकार जान पड़ती थीं मानो सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी के पीछे श्रुति चली आ रही हो। काषायवस्त्रधारिणी सीता की दीन-हीन दशा देखकर वहाँ उपस्थित सभी लोगों का हृदय दुःख से भर आया और वे शोक से विकल हो आँसू बहाने लगे।

वाल्मीकि बोले, "श्रीराम! मैं तुम्हें विश्‍वास दिलाता हूँ कि सीता पवित्र और सती है। कुश और लव आपके ही पुत्र हैं। मैं कभी मिथ्याभाषण नहीं करता। यदि मेरा कथन मिथ्या हो तो मेरी सम्पूर्ण तपस्या निष्फल हो जाय। मेरी इस साक्षी के बाद सीता स्वयं शपथपूर्वक आपको अपनी निर्दोषिता का आश्‍वासन देंगीं।"
महर्षि के इन उत्तम वचनों को सुनकर और सभा के मध्य में जानकी को प्रांजलिभूत खड़ी देखकर रघुनन्दन बोले, "हे ऋषिश्रेष्ठ! आपका कथन सत्य है और आपके निर्दोष वचनों पर मुझे पूर्ण विश्‍वास है। वास्तव में वैदेही ने अपनी सच्चरित्रता का विश्‍वास मुझे अग्नि के समक्ष दिला दिया था परन्तु लोकापवाद के कारण ही मुझे इन्हें त्यागना पड़ा। आप मुझे इस अपराध के लिये क्षमा करें।"
तत्पश्‍चात् श्रीराम सभी ऋषि-मुनियों, देवताओं और उपस्थित जनसमूह को लक्ष्य करके बोले, "हे मुनि एवं विज्ञजनों! मुझे महर्षि वाल्मीकि जी के कथन पर पूर्ण विश्‍वास है परन्तु यदि सीता स्वयं सबके समक्ष अपनी शुद्धता का पूर्ण विश्‍वास दें तो मुझे प्रसन्नता होगी।"

राम का कथन समाप्त होते ही सीता हाथ जोड़कर, नेत्र झुकाये बोलीं, "मैंने अपने जीवन में यदि श्रीरघुनाथजी के अतिरिक्‍त कभी किसी दूसरे पुरुष का चिन्तन न किया हो तो मेरी पवित्रता के प्रमाणस्वरूप भगवती पृथ्वी देवी अपनी गोद में मुझे स्थान दें।"
सीता के इस प्रकार शपथ लेते ही पृथ्वी फटी। उसमें से एक सिंहासन निकला। उसी के साथ पृथ्वी की अधिष्ठात्री देवी भी दिव्य रूप में प्रकट हुईं। उन्होंने दोनों भुजाएँ बढ़ाकर स्वागतपूर्वक सीता को उठाया और प्रेम से सिंहासन पर बिठा लिया। देखते-देखते सीता सहित सिंहासन पृथ्वी में लुप्त हो गया। सारे दर्शक स्तब्ध से यह अभूतपूर्व द‍ृश्य देखते रहे। सम्पूर्ण वातावरण मोहाच्छन्न सा हो गया।

इस सम्पूर्ण घटना से राम को बहुत दुःख हुआ। उनके नेत्रों से अश्रु बहने लगे। वे दुःखी होकर बोले, "मैं जानता हूँ, माँ वसुन्धरे! तुम ही सीता की सच्ची माता हो। राजा जनक ने हल जोतते हुये तुमसे ही सीता को पाया था, परन्तु तुम मेरी सीता को मुझे लौटा दो या मुझे भी अपनी गोद में समा लो।"
श्रीराम को इस प्रकार विलाप करते देख ब्रह्मादि देवताओं ने उन्हें नाना प्रकार से सान्त्वना देकर समझाया। 
भरत व लक्ष्मण के पुत्रों के लिये राज्य व्यवस्था
यज्ञ की समाप्ति पर सुग्रीव, विभीषण आदि सहित राजाओं तथा ऋषि-मुनियों एवं निमन्त्रित जनों को अयोध्यापति राम ने सब प्रकार से सन्तुष्ट कर विदा किया। इसके पश्‍चात् उन्होंने राजकाज में मन लगाया। प्रजा का पालन करते हुये उन्होंने असंख्य यज्ञ एवं धार्मिक अनुष्ठान किये। उनके राज्य की महिमा दूर-दूर तक फैल रही थी। प्रजा सब प्रकार से सुखी और सम्पन्न थी पुत्रों एवं पौत्रों की समृद्धि एवं श्रद्धा से घिरी हुई माता कौसल्या ने इस संसार का त्याग किया। उनकी मृत्यु के पश्‍चात् कैकेयी, सुमित्रा भी परलोकगामिनी हो गईं।

भरत के पुत्र तक्ष और पुष्कल जब बड़े हुये तो कैकेयनरेश तथा भरत के मामा युधाजित ने श्रीराम के पास सन्देश भेजा कि सिन्धु नदी के दोनों तटों पर गन्धर्व देश बसा हुआ है। उस प्रदेश में गन्धर्वराज शैलूष अपने तीन करोड़ महापराक्रमी गन्धर्वों के साथ राज्य करते हैं। यदि आप उस प्रदेश को जीत कर सिन्धु देश के दोनों ओर के प्रान्तों को तक्ष और पुष्कल को सौंप दें तो अति उत्तम हो। कैकेय नरेश की आज्ञा को शिरोधार्य कर श्रीराम ने भरत को गन्धर्व देश पर आक्रमण का आदेश दिया। कैकेय नरेश युधाजित भी अपनी सेना लेकर भरत के साथ आ मिले।

दोनों सेनाओं ने मिलकर गन्धर्वों की राजधानी पर धावा बोल दिया। दोनों ओर की सेनाएँ भयंकर गर्जन-तर्जन करती हुई परस्पर युद्ध करने लगी। देखते-देखते समर भूमि में रक्‍त की नदियाँ बह गईं। सैनिकों के रुण्ड-मुण्ड उस शोणित-सरिता में जल-जन्तुओं की भाँति बहते दिखाई देने लगे। सात दिन तक यह भयानक युद्ध चलता रहा। अन्तिम दिन वीर भरत ने संवर्त नामक अस्त्र का प्रयोग करके गन्धर्व सेना का सर्वनाश कर दिया। इस प्रकार गन्धर्वों को परास्त कर भरत ने दो सुन्दर नगरों की स्थापना की। एक का नाम तक्षशिला रखा और तक्ष को वहाँ का राजा बनाया। दूसरे का नाम पुष्कलावत रखकर उस पुष्कल को सौंप दिया। नये अधिपतियों के शासन में दोनों नगरों ने अभूतपूर्व उन्नति की। पाँच वर्ष पश्‍चात् भरत अयोध्या लौट आये।

इसके पश्‍चात् श्रीरामचन्द्र ने भरत के परामर्श से लक्ष्मण के पुत्र अंगद के लिये कारूमथ में और चन्द्रकान्त के लिये चन्द्रकान्त नगर का निर्माण किया और उन्हें वहाँ का राजा बनाया। राजाकाज की समुचित व्यवस्था करने के लिये उन्होंने अंगद के साथ लक्ष्मण को और चन्द्रकान्त के साथ भरत को भेजा जो एक वर्ष तक वहाँ का समुचित प्रबन्ध करके अयोध्या लौट आये।

(3)इन्द्र से वर प्राप्त करके रघुनन्दन राम महर्षि अगस्त्य के आश्रम में पहुँचे। वे शम्बूक वध की कथा सुनकर बहुत प्रसन्न हुये और उन्होंने विश्‍वकर्मा द्वारा दिया हुआ एक दिव्य आभूषण श्रीराम को अर्पित किया। वह आभूषण सूर्य के समान दीप्तिमान, दिव्य, विचित्र तथा अद्‍भुत था। उसे देखकर श्री राम ने महर्षि अगस्त्य से पूछा, "मुनिवर! विश्‍वकर्मा का यह अद्‍भुत आभूषण आपके पास कहाँ से आया? जब यह आभूषण इतना विचित्र है तो इसकी कथा भी विचित्र ही होगी। यह जानने का मेरे मन में कौतूहल हो रहा है।"

श्रीराम की जिज्ञासा और कौतूहल को शान्त करने के लिये महर्षि ने कहा, "प्राचीन काल में एक बहत विस्तृत वन था जो चारों ओर सौ योजन तक फैला हुआ था, परन्तु उस वन में कोई प्राणी-पशु-पक्षी तक भी नहीं रहता था। उसमें एक मनोहर सरोवर भी था। उस स्थान को पूर्णतया एकान्त पाकर मैं वहाँ तपस्या करने के लिये चला गया था। सरोवर के चारों ओर चक्कर लगाने पर मुझे एक पुराना विचित्र आश्रम दिखाई दिया। उसमें एक भी तपस्वी नहीं था। मैंने रात्रि वहीं विश्राम किया। जब मैं प्रातःकाल स्नानादि के लिये सरोवर की ओर जाने लगा तो मुझे सरोवर के तट पर हृष्ट-पुष्ट निर्मल शव दिखाई दिया। मैं आश्‍चर्य से वहा बैठकर उस शव के विषय में विचार करने लगा। थोड़ी देर पश्‍चात् वहाँ एक दिव्य विमान उतरा जिस पर एक सुन्दर देवता विराजमान था। उसके चारों ओर सुन्दर वस्त्राभूषणों से अलंकृत अनेक अप्सराएँ बैठी थीं। उनमें से कुछ उन पर चँवर डुला रही थीं। फिर वह देवता सहसा विमान से उतरकर उस शव के पास आया और उसने मेरे देखते ही देखते उस शव को खाकर फिर सरोवर में जाकर हाथ-मुँह धोने लगा। जब वह पुनः विमान पर चढ़ने लगा तो मैंने उसे रोककर पूछा कि हे तेजस्वी पुरुष! कहाँ आपका यह देवोमय सौम्य रूप और कहाँ यह घृणित आहार? मैं इसका रहस्य जानना चाहता हूँ। मेरे विचार से आपको यह घृणित कार्य नहीं करना चाहिये था।

"मेरी बात सुकर वह दिव्य पुरुष बोला कि मेरे महायशस्वी पिता विदर्भ देश के पराक्रमी राजा थे। उनका नाम सुदेव था। उनकी दो पत्‍नियाँ थीं जनसे दो पुत्र उत्पन्न हुये। एक का नाम था श्‍वेत और दूसरे का सुरथ। मैं श्‍वेत हूँ। पिता की मृत्यु के बाद मैं राजा बना और धर्मानुकूल राज्य करने लगा। एक दिन मुझे अपनी मृत्यु की तिथि का पता चल गया और मैं सुरथ को राज्य देकर इसी वन में तपस्या करने के लिये चला आया। दीर्घकाल तक तपस्या करके मैं ब्रह्मलोक को प्राप्त हुआ, परन्तु अपनी भूख-प्यास पर विजय प्राप्त न कर सका। जब मैंने ब्रह्माजी से कहा तो वे बोले कि तुम मृत्युलोक में जाकर अपने ही शरीर का नित्य भोजन किया करो। यही तुम्हारा उपचार है क्योंकि तुमने किसी को कभी कोई दान नहीं दिया, केवल अपने ही शरीर का पोषण किया है। ब्रह्मलोक भी तुम्हें तुम्हारी तपस्या के कारण ही प्राप्त हुआ है। जब कभी महर्षि अगस्त्यत उस वन में पधारेंगे तभी तुम्हें भूख-प्यास से छुटकारा मिल जायेगा। अब आप मुझे मिल गये हैं, अतएव आप मेरा उद्धार करें और मेरा उद्धार करने के प्रतिदान स्वरूप यह दिव्य आभूषण ग्रहण करें। यह आभूषण दिव्य वस्त्र, स्वर्ण, धन आदि देने वाला है। इसके साथ मैं अपनी सम्पूर्ण कामनाएँ आपको समर्पित कर रहा हूँ। मेरे आभूषण लेते ही राजर्षि श्‍वेत पूर्णतः तृप्‍त होकर स्वर्ग को प्राप्त हुये और वह शव भी लुप्त हो गया।"

(4)जब लक्ष्मण ने अश्‍वमेघ यज्ञ के विशेष आग्रह किया तो श्री रामचन्द्र जी अत्यन्त प्रसन्न हुये और बोले, "हे सौम्य! इस विषय में मैं तुम्हें राजा इल की कथा सुनाता हूँ। प्रजापति कर्दम के पुत्र इल वाह्लीक देश के राजा थे। एक समय शिकार खेलते हुये वे उस स्थान पर जा पहुँचे जहाँ स्वामी कार्तिकेय का जन्म हुआ था और भगवान शंकर अपने सेवकों के साथ पार्वती का मनोरंजन करते थे। उस प्रदेश में शिव की माया से सभी प्राणी स्त्री वर्ग के हो गये थे। नर पशु-पक्षी या मनुष्य कोई भी दृष्टिगत नहीं होता था। राजा इल ने भी सैनिकों सहित स्वयं को वहाँ स्त्री रूप में परिणित होते देखा। इससे भयभीत होकर वे शंकर जी के शरणागत हुये और उनसे पुरुषत्व प्रदान करने की प्रार्थना करने लगे।

"जब भगवान शंकर ने उनकी प्रार्थना स्वीकार नहीं की तो उन्होंने व्याकुल होकर, गिड़गिड़ा कर उमा से प्रार्थना की। इससे प्रसन्न होकर उमा ने कहा कि मैं भगवान शंकर की केवल अर्द्धांगिनी हूँ। इलिये मैं तुम्हें तुम्हारे जीवन के केवल आधे काल के लिये पुरुष बना सकती हूँ। बोलो, तुम अपनी आयु के पूर्वार्द्ध के लिये पुरुषत्व चाहते हो या उत्तरार्द्ध के लिये? इल कुछ क्षण सोचकर बोले कि देवि! ऐसा कर दीजिये कि मैं एक मास पुरुष और एक मास स्त्री रहा करूँ। पार्वती जी ने 'तथास्तु' कहकर उनकी इच्छा पूरी कर दी। इस वरदान के फलस्वरूप इल प्रथम मास में त्रिभुवन सुन्दरी नारी बन गये तथा इल से इला कहलाने लगे। इल उक्‍त क्षेत्र से निकलकर उस सरोवर पर पहुँचे जहाँ सोमपुत्र बुध तपस्या कर रहे थे। इला पर द‍ृष्टि पड़ते ही बुध उस पर आसक्‍त हो गये एवं उसके साथ रमण करने लगे। उन्होंने राजा के साथ आये स्त्रीरूपी सैनिकों का वृतान्त जानकर उन्हें किंपुरुषी (किन्नरी) होकर पर्वत के किनारे रहने का निर्देश दिया। उन्होंने आग्रह करके इल को एक वर्ष के लिये वहीं रोक लिया।

"एक मास पश्‍चात् इला ने इल के रूप में पुरुषत्व प्राप्त किया। अगले मास वे फिर नारी बन गये। इसी प्रकार यह क्रम चलता रहा और नवें मास में इला ने पुरुरवा को जन्म दिया। अन्त में इल को इस रूप परिवर्तन से मुक्‍ति दिलाने के लिये बुध ने महात्माओं से विचार विमर्श करके शिव जी को विशेष प्रिय लगने वाला अश्‍वमेघ यज्ञ कराया। इससे प्रसन्न होकर शिव जी ने राजा इल को स्थाई रूप से पौरुष प्रदान किया।"

श्री रामचन्द्र जी बोले, "हे महाबाहु! वास्तव में अश्‍वमेघ यज्ञ अमित प्रभाव वाला है।"

(5)एक दिन श्रीराम अपने दरबार में बैठे थे तभी एक बूढ़ा ब्राह्मण अपने मरे हुये पुत्र का शव लेकर राजद्वार पर आया और 'हा पुत्र!' 'हा पुत्र!' कहकर विलाप करते हुये कहने लगा, "मैंने पूर्वजन्म में कौन से पाप किये थे जिससे मुझे अपनी आँखों से अपने इकलौते पुत्र की मृत्यु देखनी पड़ी। केवल तेरह वर्ष दस महीने और बीस दिन की आयु में ही तू मुझे छोड़कर सिधार गया। मैंने इस जन्म में कोई पाप या मिथ्या-भाषण भी नहीं किया। फिर तेरी अकाल मृत्यु क्यों हुई? इस राज्य में ऐसी दुर्घटना पहले कभी नहीं हुई। निःसन्देह यह श्रीराम के ही किसी दुष्कर्म का फल है। उनके राज्य में ऐसी दुर्घटना घटी है। यदि श्रीराम ने तुझे जीवित नहीं किया तो हम स्त्री-पुरुष यहीं राजद्वार पर भूखे-प्यासे रहकर अपने प्राण त्याग देंगे। श्रीराम! फिर तुम इस ब्रह्महत्या का पाप लेकर सुखी रहना। राजा के दोष से जब प्रजा का विधिवत पालन नहीं होता तभी प्रजा को ऐसी विपत्तियों का सामना करना पड़ता है। इससे स्पष्ट है कि राजा से ही कहीं कोई अपराध हुआ है।"

इस प्रकार की बातें करता हुआ वह विलाप करने लगा।

जब श्रीरामचन्द्रजी इस विषय पर मनन कर रहे थे तभी वसिष्ठजी आठ ऋषि-मुनियों के साथ दरबार में पधारे। उनमें नारद जी भी थे। श्री राम ने जब यह समस्या उनके सम्मुख रखी तो नारद जी बोले, "राजन्! जिस कारण से इस बालक की अकाल मृत्यु हुई वह मैं आपको बताता हूँ। सतयुग में केवल ब्राह्मण ही तपस्या किया करते थे। फिर त्रेता के आरम्भ में क्षत्रियों को भी तपस्या का अधिकार मिल गया। अन्य वर्णों का तपस्या में रत होना अधर्म है। हे राजन्! निश्‍चय ही आपके राज्य में कोई शूद्र वर्ण का मनुष्य तपस्या कर रहा है, उसी से इस बालक की मृत्यु हुई है। इसलिये आप खोज कराइये कि आपके राज्य में कोई व्यक्‍ति कर्तव्यों की सीमा का उल्लंघन तो नहीं कर रहा। इस बीच ब्राह्मण के इस बालक को सुरक्षित रखने की व्यवस्था कराइये।"

नारदजी की बात सुनकर उन्होंने ऐसा ही किया। एक ओर सेवकों को इस बात का पता लगाने के लिये भेजा कि कोई अवांछित व्यक्‍ति ऐसा कार्य तो नहीं कर रहा जो उसे नहीं करना चाहिये। दूसरी ओर विप्र पुत्र के शरीर की सुरक्षा का प्रबन्ध कराया। वे स्वयं भी पुष्पक विमान में बैठकर ऐसे व्यक्‍ति की खोज में निकल पड़े। पुष्पक उन्हें दक्षिण दिशा में स्थित शैवाल पर्वत पर बने एक सरोवर पर ले गया जहाँ एक तपस्वी नीचे की ओर मुख करके उल्टा लटका हुआ भयंकर तपस्या कर रहा था। उसकी यह विकट तपस्या देख कर उन्होंने पूछा, "हे तपस्वी! तुम कौन हो? किस वर्ण के हो और यह भयंकर तपस्या क्यों कर रहे हो?"

यह सुनकर वह तपस्वी बोले, "महात्मन्! मैं शूद्र योनि से उत्पन्न हूँ और सशरीर स्वर्ग जाने के लिये यह उग्र तपस्या कर रहा हूँ। मेरा नाम शम्बूक है।"

शम्बूक की बात सुकर रामचन्द्र ने म्यान से तलवार निकालकर उसका सिर काट डाला। जब इन्द्र आदि देवताओं ने व

हाँ आकर उनकी प्रशंसा की तो श्रीराम बोले, "यदि आप मेरे कार्य को उचित समझते हैं तो उस ब्राह्मण के मृतक पुत्र को जीवित कर दीजिये।"

राम के अनुरोध को स्वीकार कर इन्द्र ने विप्र पुत्र को तत्काल जीवित कर दिया।

Thursday, 27 June 2013

Shiva Dvadasha Jyotirlinga Stotram


                        Shiva Dvadasha Jyotirlinga Stotram
सौराष्ट्रे सोमनाथं च श्रीशैले मल्लिकार्जुनम् |
उज्जयिन्यां महाकालमोङ्कारममलेश्वरम् ||1||

परल्यां वैद्यनाथं च डाकिन्यां भीमशंकरम् |
सेतुबन्धे तु रामेशं नागेशं दारुकावने ||||

वाराणस्यां तु विश्वेशं त्रयम्बकं गौतमीतटे |
हिमालये तु केदारम् घुश्मेशं च शिवालये ||||

एतानि ज्योतिर्लिंगानि सायंप्रातः पठेन्नरः |
सप्तजन्मकृतं पापं स्मरणेन विनश्यति ||4||

भगवान शंकर  के  इस 12 (द्वादश) ज्योतिर्लिंगों  का  स्मरण प्रत्येक दिन जो कोई भी सांय अर्थात संध्या के  समय  व प्रात निष्काम भाव से करता  है,  उसके  सात जन्म तक  किये हुए पापों का का विनाश भी इस स्त्रोत्र का स्मरण करते ही ही हो जाता है । और उस भक्त के सब पाप नष्ट होकर उसको सर्व सिद्धि को प्राप्त होती है ।

Wednesday, 26 June 2013

MRITYUNJAY STOTRAM


                                                         
               ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् ।

               उर्वारुकमिव बन्धनान् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात् ।।