प्राचीन काल से मनुष्य का सबंध संगीत से रहा हैं ,
संगीत को मनुष्य ने अपने भाव को व्यक्त करने का
माध्यम बनाया था. प्राचीन समय में यह मात्र एक मनोरंजन का स्त्रोत नहीं था. हमारे
कई ऋषि मुनि संगीत शाश्त्र में निपूर्ण थे. और आज भी कई उच्च कोटि के योगीजन संगीत
में पूर्ण होते हैं . क्या हमने एक बार भी यह सोचा की जो
हमेशा इष्ट के आनंद में रहते हैं उन्हें यह बाहरी
मनोरंजन के माध्यम संगीत की क्या जरुरत हैं .
संगीत का मतलब आज क्या लिया जाता
है ये कहा नहीं जा सकता लेकिन प्राचीन काल में ये एक
आध्यात्मिक माध्यम ही रहा था. संगीत के माध्यम से ही कई लोगो ने पूर्णता प्राप्त
की हैं मीराबाई या फिर नरसिंह जेसे कई उदाहरण हमारे सामने ही हैं . तो फिर यह भेद क्यों ?
वास्तव में हमने संगीत को कभी समझा
ही नहीं, सदगुरुदेव कहते थे की
भवरे की गुंजन भी एक प्रकार से संगीत ही हैं जिसे रोज
सुना जाये तो आदमी धीरे धीरे विचार शून्य हो जाता हैं . सामान्य मनुष्यों को संगीत
मनोरंजन आधारित होना चाहिए लेकिन योगीजन के लिए संगीत बहुत गहरी परिभाषा लिए हुए हैं .
ध्वनि की महत्ता निर्विवाद रूप से मानी
जाती हैं और एक विशेष ध्वनि कोई न कोई विशेष उर्जा
प्रसारित करती ही हैं . संगीत के सप्तक या सा रे ग म प् ध नि आदि शब्दों के कोई
सामान्य समूह नहीं हैं . देने को तो इन ध्वनियों को कोई भी उच्चारण दे दिया जाता
लेकिन सा रे ग म प ध नि का गहन अर्थ हैं . जब एक विशेष लय के साथ एक मूल ध्वनि
सम्मिलित होती हे तो वह शरीर में किसी एक विशेष चक्र को स्पंदित करती हैं .
सभी सुर अपने आपमें तत्वों के प्रतिनिधि हैं और हर सुर एक विशेष तत्व के ऊपर अपना प्रभुत्व
रखता हैं . जिसमे सा- पृथ्वी, रे,
ग – जल तत्व म,प – अग्नि तत्व ध- वायु और नि- आकाश तत्व
के प्रतिनिधि हैं
.अब जिस तरह से ये सप्त सुर हैं उसी तरह
शरीर में सप्त सुरिकाए हैं जहाँ से सुर का या ध्वनि की
रचना होती हैं . यह हे सर, नासिका,
मुख-कंठ, ह्रदय (फेफड़े), नाभि, पेडू और ऊसन्धि. ध्यान से देखा जाए तो ये साडी
जगह शरीर के सप्त चक्रों के अत्यंत ही नजदीक हैं . अब इस तरह
संगीत तंत्र में कुण्डलिनी सबंध में सप्त सुर एक एक चक्र को स्पंदित करने में
सहयोगी हैं
सा – मूलाधार
( पृथ्वी तत्व, सुरिका- ऊसन्धि)
रे – स्वाधिष्ठान(
जल तत्व , सुरिका – पेडू )
ग – मणिपुर
(जल तत्व , सुरिका – नाभि )
म – अनाहत
( अग्नि तत्व, सुरिका – ह्रदय)
प – विशुद्ध
( अग्नि तत्व, सुरिका – कंठ)
ध – आज्ञा
( वायु तत्व, सुरिका – नासिका)
नि – सहस्त्रार
( आकाश तत्व, सुरिका – मस्तक)
इन स्वरों का, उपरोक्त स्वरिकाओ से इनसे सबंधित चक्र का ध्यान करने से चक्र जागरण की प्रक्रिया
शुरू हो जाती हैं और उसे कई विशेष अनुभव होने लगते हैं
. मगर ये चक्र जागरण होता हैं , भेदन नहीं.
इसी लिए विभ्भिन रागों की रचना हुयी हैं , जिसमे ध्वनिओ के संयोग से कोई विशेष राग निर्मित
किया जाता हैं जो की वह विशेष चक्र को भेदन कर सकता हैं
.
जैसे मालकोष राग के माध्यम से
विशुद्ध चक्र को जाग्रत किया जा सकता है , इसी प्रकार कल्याण
राग के निरंतर अभ्यास से भी विशुद्ध चक्र को स्पंदन प्राप्त होता है और वो जाग्रत
हो जाता है. और एक बार जब ये चक्र जाग्रत हो जाता है तो साधक वायुमंडल में व्याप्त
तरंगों को महसूस कर सकता है और उन्हें ध्वनियों में परिवर्तित कर सकता है ,
पर कल्याण राग जैसा राग सांयकाल के समय ही गाना उचित होता है.
अर्थात सूर्य अस्त के तुरंत उपरांत. नन्द राग के द्वारा मूलाधार चक्र जाग्रत हो
जाता है . और वेदों का सही अर्थ व्यक्ति तभी समझ सकता है जब उसका मूलाधार पूरी तरह
जाग्रत हो. इस राग को रात्रि के दुसरे प्रहार में गाना चाहिए. ठाट बिलाबल राग
देवगिरी के प्रयोग से अनाहत चक्र की जाग्रति होती है
व्यक्ति अनहद नाद को सुनने में और उसकी शक्तियों की प्राप्ति में सक्षम हो जाता है, इसी प्रकार सभी राग किसी न किसी चक्र को स्पंदित करते ही हैं.
लेकिन क्या, संगीत सिर्फ
कुण्डलिनी जागरण के लिए ही हैं ? नहीं. संगीत की शक्ति
से तानसेन ने दीपक राग का प्रयोग कर जहा दीपको को प्रज्वलित कर दिया था वही बैजू
बावरे ने संगीत के एक विशेष राग का प्रयोग कर पत्थर को पिघलाकर उसमे अपना तानपुरा
दाल दिया था और राग बंद कर दिया था जिससे की वो तानपुरा उस पिघले हुए पत्थर में ही
जम गया था. ये सब तो कुछ उदाहरण मात्र हैं संगीत भी अपने आप में एक पूर्ण तंत्र
हे. ब्रम्हांड के सभी पदार्थ ५ तत्व से ही निर्मित हैं . संगीत
के सप्त सुर इन ५ तत्वों का प्रतिनिधित्व करते हैं . संगीत
से किसी विशेष सुर या राग के माध्यम से हम अपना वायु तत्व बढ़ाले और भूमि एवं जल
तत्व को कम करदे तो मनुष्य अद्रश्य एवं वायुगमन सिद्धि प्राप्त कर लेता हैं ..
यदि साधक सही तरीके से संगीत का प्रयोग करे तो बाह्य चीजों पर यही प्रयोग करने पर वह भी अद्रश्य हो जाएगा. या फिर उसके
तत्वों के साथ संयोग करके तत्वों को बदल ने पर उसका परिवर्तन भी संभव हैं .
या फिर संगीत के माध्यम से हवा में ही सबंधित कोई भी वस्तु के
तत्वों को संयोजित कर के उसे कुछ ही क्षणों में प्राप्त किया जा सकता हैं .
वास्तव में ही संगीत मात्र मनोरंजन नहीं हैं , हमारे ऋषि मुनि अत्यंत ही उच्चकोटि के वैज्ञानिक थे मगर हमने
समझने की कभी कोशिश नहीं की हैं
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