ब्रह्म वैवर्त पुराण
यह
सारा संसार ब्रह्मा (परमात्मा श्रीकृष्ण) में विवर्त है। इस बात को बताने
वाला यह पुराण ब्रह्म वैवर्त पुराण कहलाया। इसके प्रतिपाद्य देवता भगवान
श्रीकृष्ण और उनकी शक्ति श्रीराधारानी जी हैं। सम्पूर्ण पुराण के दो तिहाई
भाग में भगवान श्रीकृष्ण तथा राधारानीजी का वर्णन है।
विवृतं ब्रह्मकात्स्र्य च कृष्णेन यत्र शौनक
ब्रह्मर्ववर्तकं तेन प्रवदन्ति पुराविदः ।। (ब्रह्म वैवर्त पुराण)
भगवान श्रीकृष्ण सर्वोच्च देव हैं। वे ही विष्णु, नारायण, शिव, गणेश आदि रूपों में प्रकट हुये हैं और श्रीराधारानी ही दुर्गा, महालक्ष्मी, महासरस्वती, सावित्री, काली आदि रूपों में प्रकट हुयी है।
आविर्वभूवुः प्रकृति ब्रह्मविष्णु शिवादयः ।। (ब्रह्म खण्ड)
भगवान
कृष्ण का ध्यान करते हुये शंकर जी उन्हें परब्रह्म बताते हैं तो भगवान
कृष्ण शंकरजी का ध्यान करते हुये उन्हें सर्वोच्च बताते हैं। वही
राधारानीजी दुर्गा एवं पार्वती का ध्यान करते हुये उन्हें सर्वदेवेस्वरूपा
कहती हैं तो दुर्गाजी श्रीराधारानीजी को आदि स्वरूपा महादेवी बताती हैं।
इसका अर्थ यह है कि एक ही परम तत्व और उनकी शक्ति अनेक रूपों में आर्विभूत
है। जब सृष्टि की रचना होती है तब भगवान कृष्ण ही दो रूपों में प्रकट होते
हैं- प्रकृति तथा पुरूष। उनका दाहिना अंग पुरूष और बाँया अंग प्रकृति है।
दाँयें अंग से ब्रह्मा, विष्णु, महेश
आदि देवों के रूप में परणित होते हैं। वहीं भगवान का दूसरा भाग मूल
प्रकृति ही श्रीराधारानी है। ये परब्रह्म स्वरूपा नित्या और सनातनी हैं।
फिर इनके पाँच रूप हो गये हैं –
- शिवास्वरूपा नारायणी भगवती दुर्गा,
- 2. श्री हरि की शक्ति महालक्ष्मी,
- 3. वाणी, विद्या एवं ज्ञान की अधिष्ठात्री देवी माँ सरस्वती,
- 4. ब्रह्माजी की शक्ति श्रीसावित्री,
- 5. सौन्दर्य माधुर्य की देवी भगवान कृष्ण की प्राणाधिका प्रिया श्रीराधारानीजी।
इन्हीं राधारानीजी की अंशकला से गंगा, तुलसी, मनसा, काली, पृथ्वी आदि का प्रादुर्भाव हुआ है।
मनुष्य को जब थोड़ा धन, वैभव, सम्पदा मिल जाये तो वह अभिमानी हो जाता है तथा अपने सामने दूसरों को तुच्छ समझने लगता है। भगवान के सामने ब्रह्माजी, ग रूड़जी, नारदजी तथा इन्द्र जैसों का अभिमान चूर-चूर हो जाता है तो साधारण मनुष्य की क्या बात है? अभिमानी व्यक्ति का कोई वजूद नहीं है।
सचिपति
इन्द्र कोई साधारण व्यक्ति नहीं हैं। वो एक मनवन्तर तक स्वर्ग के राजा
हैं। चन्द दिनों के लिये किसी को देश का प्रधानमंत्री बना दिया जाय तो उसे
बड़ा अभिमान हो जाता है। फिर जिसे एक मनवन्तर (71
दिव्य युग) का साम्राज्य मिल जाये तो उसे स्वाभिमान होना स्वाभाविक बात
है। एक समय इन्द्र को अपने ऊपर बड़ा अभिमान हो गया। भगवान ने सोचा इन्द्र
को अपने ऊपर बहुत अभिमान हो गया है, इसके
अभिमान को दूर करना होगा। एक समय इन्द्र ने बहुत बड़ा महल बनवाना प्रारम्भ
किया। विश्वकर्मा को भवन निर्माण की जिम्मेदारी दी। इसमें पूरे सौ वर्षों
तक उन्होंनें विश्वकर्मा को छुट्टी नहीं दी। विश्वकर्मा ने भगवान से
प्रार्थना की। भगवान नारायण एक बालक का स्वरूप धारण कर इन्द्र के पास
पहुँचे और पूछने लगे, ‘‘हे
देवेन्द्र! मैंनें तुम्हारे महल के बारे में बड़ी चर्चा सुनी कि आप बहुत
बड़ा महल बना रहे हैं। कितने विश्वकर्मा मिलकर इस महल को बना रहे हैं, और कब तक यह तैयार हो जायेगा?’’ इन्द्र बोले, ‘‘यह तो बड़े आश्चर्य की बात है। क्या विश्वकर्मा भी अनेक होते हैं?‘‘ बालक रूपी भगवान बोले, ‘‘तुम बस इतने में ही घबरा गये। ब्रह्माण्ड कितने हैं? ब्रह्मा, विष्णु, महेश कितने हैं? उन ब्रह्माण्डों में कितने इन्द्र, कितने विश्वकर्मा भरे पड़े हैं? यह
कौन जान सकता है। इन्द्र देव! कोई पृथ्वी के धूल-कणों को बेशक गिन ले
लेकिन विश्वकर्मा और इन्द्रों की संख्या नहीं गिनी जा सकती है।’’
इस
तरह इन्द्र और बटु भगवान के बीच वार्तालाप चल रहा था कि इतने में वहाँ पर
चींटियों का समुदाय दिख पड़ा। उन्हें देखते ही भगवान हँसने लगे। इन्द्र ने
हँसने का कारण पूछा तो भगवान ने कहा, महाराज!
जो ये चींटियाँ आपको दिख रही हैं यह भी पहले इन्द्र रह चुके हैं। अपने
कर्मों के अनुसार आज चींटियाँ बनी हुयी हैं। कर्मों की गति बड़ी विचित्र
है। वो आज स्वर्गलोक में हैं। वो किसी भी क्षण जीव-जन्तु, कीट-पतंग, वृक्ष आदि योनियों में जा सकता है।
भगवान
ऐसा कह ही रहे थे कि इतने में एक वृद्ध महात्मा वहाँ पर पहुँच गये जिसने
अपना सिर चटाई से ढका हुआ था और उनका शरीर बड़ा कृषमय हो गया था। शरीर की
एक-एक रोयें साफ दिखती थी। भगवान ने वृद्ध से पूछा, महाराज! आप कौन हैं? और कहाँ जा रहे हैं? आपके शरीर पर यह लोमचक्र कैसा है?
महात्मा ने कहा, ‘‘मैं क्या बताऊँ। थोड़ी-सी आयु होने के कारण मैंनें अपना घर नहीं बनाया, ना
ही नौकरी की और ना ही विवाह किया। वक्षस्थल पर लोमचक्रों के कारण मुझे लोग
लोमेश कहते हैं। मेरे वक्षस्थल के लोम ही मेरी आयु संख्या के प्रमाण हैं।
एक इन्द्र के पतन होने पर मेरा एक रोम गिर पड़ता है। यही मेरे उखड़े हुये
रोमों का रहस्य है। ब्रह्मा के द्विपरार्धावसान मेरी मृत्यु कही गयी है।
असंख्य ब्रह्मा मर गये और आगे भी मरते रहेंगे, ऐसी दशा में मैं पुत्र, पत्नी, घर-बार लेकर क्या करूँगा? भगवान की भक्ति ही सर्वश्रेष्ठ और मोक्ष से बढ़कर है। धन, ऐश्वर्य तो भक्ति के मार्ग में बाधक है। जो भगवान के सच्चे भक्त होते हैं वो तो भक्ति को छोड़कर स्वर्गादिलोकों को भी ग्रहण नहीं करते।’
दुर्लभं श्रीहरेर्दास्यं भक्तिमुक्ते गरियशी
स्वप्नवत् सर्वमैश्वर्यं सद्भक्ति व्यवधायकं ।।
इतना
कहकर लोमेश जी वहाँ से चले गये। बालक भी कहीं गायब हो गया। इन्द्र बेचारा
सोचता रह गया। उन्होंनें देखा जिसकी इतनी लम्बी आयु है वो तो एक घास की
झोपड़ी भी नहीं बनाता, केवल
चटाई से ही काम चलाता है। फिर मुझे कितना दिन रहना है जो मैं इस महल के
चक्कर में पड़ा हूँ। उन्होंनें शीघ्र ही विश्वकर्माजी को अवकाश दे दिया और
विरक्त होकर वनस्थली की ओर चल पड़े। बृहस्पतिजी ने उन्हें समझा-बुझाकर फिर
से राज्य कार्य में नियुक्त किया।
ब्रह्म वैवर्त पुराण सुनने का फल:-
यह
पुराण साक्षात् कृष्ण स्वरूप है। इसके श्रवण करने से रोग एवं भय का नाश हो
जाता है तथा सिद्धि की प्राप्ति होती है। इस पुराण का आश्रय लेने पर भगवान
श्रीकृष्ण की अविचल भक्ति प्राप्त होती है एवं हृदय में तत्वज्ञान हो जाता
है। संसार रूपी कारागार में बँधे जीवों के लिये यह पुराण बेड़ी काटने के
हथियार के समान है तथा शोक-संताप का नाश करने वाला है।
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