Sunday, 18 November 2012

नारद भक्ति सूत्र


                                      नारद भक्ति सूत्र

प्रथमोऽध्याय……………………………………………………………....................................……………….परभक्तिस्वरूपम
अथातो भक्तिं व्याख्यास्यामः ।
अब भक्ति कि व्याख्या करते हैं ॥१॥
सा त्वस्मिन परप्रेमरूपा ।
वह तो ईश्वर के लिये परम् प्रेम रूप है ॥२॥
अमृतस्वरूपा च ।
अमृत स्वरूप है ॥३॥
यल्लब्धवा पुमान सिध्दो भवति अमृतो भवति तृप्तो भवति ।
जिसे पा कर मनुष्य सिद्ध हो जाता है, अमर हो जाता है, तृप्त हो जाता है ॥४॥
यत्प्राप्य न किन्चित वाञ्छति न शोचति न द्वेष्टि न रमते नोत्साही भवति ।
जिसे प्राप्त कर, वह न कभी और कुछ चाहता है, न ही शोक करता है, न घृणा करता है, न ही किसी चिज में रमता है, वह अन्य विषयों कि तरफ उत्साह रहित हो जाता है ॥५॥
यज्ज्ञात्वा मत्तो भवति स्तब्धो भवति आत्मारामो भवति ।
जिसे जान कर वो उन्मत्त हो जाता है, स्तब्ध हो जाता है, और अपने आप में ही सन्तुष्ट रहता है ॥६॥
सा न कामयमाना निरोधरूपत्वात ।
भक्तिमान मनुष्य के मन में कामनायें नहीं रहतीं क्योकि भक्ति निरोधरूप है ॥७॥
निरोधस्तु लोकवेदव्यापारन्यासः ।
निरोधरूप मतलब सांसारिक और वैदिक कर्मों की तरफ ज्यादा ध्यान न होना ॥८॥
तस्मिन्ननन्यता तद्विरोधिषूदासीनता च ।
उस (न्यास, त्याग) में (भगवान के प्रति) अनन्यता तथा उस के विरोधी विषय में
उदासीनता को निरोध कहते हैं ॥९॥
अन्याश्रयाणा त्यागोनन्यता ।
(एक प्रभु को छोड़कर) अन्य आश्रयों का त्याग अनन्यता है ॥१०॥
लोकवेदेषु तदनुकूलाचरणं तदविरोधिषूदासीनता ।
संसारिक और वेदिक कर्म जो भक्ति के अनुकूल हों उनका आचरण करना और उसके विरुद्ध विषयों में उदासीनता ॥११॥
भवतु निश्चयदाढर्यादूर्ध्वं शास्त्ररक्षणम् ।
परम-प्रम-रूपा भक्ति की प्राप्ति दृढ़निश्चय हो जाने के पश्चात भी शास्त्र
रक्षा करनी चाहिये ॥१२॥
अन्यथा पातित्यशङ्कया ।
(नहीं तो संस्कारों, वासनाओं के कारण) गिरने की आशंका बनी रहती है ॥१३॥
लोकोऽपि तावदेव भोजनादि व्यापारस्त्वाशरी रधारणावधि ।
लोक बंधन भी तब तक ही रहता है, किन्तु भोजनादि व्यापार शरीर धारण पर्यन्त
चलता  है ॥१४॥
तल्लक्षणानि वाच्यन्ते नानामतभेदात् ।
अब नाना मतभेद से (भक्ति) के लक्षण कहते हैं ॥१५॥
पूजादिष्वनुराग इति पराशर्यः ।
पूजा आदि में अनुराग भक्ति है, ऐसा पाराशर (वेद व्यास जी) कहते हैं ॥१६॥
कथादिष्विति गर्गः ।
गर्ग जी के अनुसार भक्ति, कथा आदि में ( अनुराग है ) ॥१७॥
आत्मरत्यविरोधेनेति शाण्डिल्यः ।
शाण्डिल्य के मतानुसार, आत्मरति का अवरोध भक्ति है ।(आत्मतत्व की ओर ले जाने वाले विषयों में अनुराग भक्ति है ) ॥१८॥
नारदस्तु तदर्पिताखिलाचारता तद्विस्मरणे परमव्याकुलतेति ।
नारद जी के मतानुसार अपने सकल आचरण से उसी के समर्पित रहना तथा उसके विस्मरण हो जाने पर व्याकुल हो जाना भक्ति है ॥१९॥
अस्त्येवमेवम् ।
यह ही भक्ति है ॥२०॥
यथा व्रजगोपिकानाम ।
जैसे व्रज की गोपिकाएं ॥२१॥
तत्रापि न माहात्म्यज्ञानविस्मृत्यपवादः ।
उसमें (गोपी प्रेम में) भी माहात्म्य ज्ञान (परमार्थ ज्ञान) का अपवाद नहीं था ॥२२॥
तद्विहीनं जाराणामिव ।
उससे विहीन (भक्ति), जार भक्ति (हो जाती है) ॥२३॥
नास्त्येव तस्मिन तत्सुखसुखित्वम् ।
उसमें (जार प्रेम में) वह (परमार्थ) सुख नहीं है॥२४॥
द्वितीयोऽध्यायः    ………………………………………………….......................................................………….  (परभक्तिभक्तिमहत्व )
सा तु कर्मज्ञानयोगेभ्योऽप्यधिकतरा ।
वह तो कर्म, ज्ञान तथा योग से अधिक श्रेष्ठ है ॥२५॥
फलरूपत्त्वात् ।
क्योंकि भक्ति फल रूपा है (सब साधना इसके लिए ही हैं ) ॥२६॥
ईश्वरस्याप्यभिमानद्वेषित्वात् दैन्यप्रियत्वात् च ।
ईश्वर को भी अभिमान से द्वेष भाव है तथा दीन भाव प्रिय है ॥२७॥
तस्याः ज्ञानमेव साधनमित्येके ।
उसका (परम-प्रम-रूपा भक्ति का ) साधन ज्ञान ही है, कुछ (आचार्यों) का मत है ॥२८॥
अन्योन्याश्रयत्वमित्यन्ये ।
दूसरे (आचार्यों) के मतानुसार भक्ति तथा ज्ञान एक दूसरे पर आधारित हैं ॥२९॥  
स्वयं फलरूपतेति ब्रह्मकुमारः ।
ब्रह्म कुमारों (सनत् आदि) का मत है कि भक्ति स्वयं फल रुपा है ॥३०॥
राजगृहभोजनादिषू तथैव दृष्टत्वात् ।
राज दरबार में तथा भोजनादि में ऐसा ही देखा जाता है ( भूख दूर करने की इच्छा कोई नहीं करता, भोजन करने की इच्छा करता है) ॥३१॥
न तेन राजा परितोषः क्षुच्छान्तिर्वा ।
न उससे ( केवल ज्ञान से ) न तो राजा को प्रसन्नता होगी न (आत्मा की)भूख शान्त होगी ॥३२॥
तस्मात् सैव ग्राह्या मुमुक्षुभिः ।
अतः (मुमुक्षुओं को, बंधन से छुटकारे चाहने वालों को) भक्ति ही ग्रहण करनी  चाहिए ॥३३॥
तृतियोऽध्यायः …………………………………………………….....................................................……………………( भक्तिसाधनानि )
तस्याः साधनानि गायन्त्याचार्याः ।
उस (भक्ति) को प्राप्त करने के साधन (उपाय) बताते हैं ॥३४॥
तत्तु विषयत्यागात् सङ्गत्यागात् च ।
वह (भक्ति साधन ) तो विषय त्याग तथा संग त्याग से प्राप्त होता है ॥३५॥
अव्यावृत्तभजनात् ।
(अथवा) अखण्ड भजन से ॥३६॥
लोकेऽपि भगवद्गुणश्रवणकीर्तनात् ।
लोक समाज में भी भगवद् गुण श्रवण तथा कीर्तन से ॥३७॥
मुख्यतस्तु महत्कृपयैव भगवत्कृपालेशाद वा ।
मुख्यतया महापुरुषों की कृपा से, या भगवद् कृपा के लेश मात्र से ॥३८॥
महत्सङ्गस्तु दुर्लभोऽगम्योऽमोघश्च ।
परन्तु महापुरुषों का संग दुर्लभ, अगम्य तथा अमोध है ॥३९॥
लभ्तेऽपि तत्कृपयैव ।
उसकी कृपा से ही मिलते हैं ॥४०॥
तस्मिंस्तज्जने भेदाभावात् ।
क्योंकि भगवान तथा उसके भक्त में भेद का अभाव है ॥४१॥
तदेव साध्यतां तदेव साध्यताम् ।
(इसलिए) उसकी ही साधना करो, उसकी ही साधना करो ॥४२॥
दुस्सङ्गः सर्वथैव त्याज्यः ।
दुसंग सर्वदा त्याज्य है ॥४३॥
कामक्रोधमोहस्मृतिभ्रंशबुद्धिनाशकारणत्वात् ।
( कुसंग) काम, क्रोध, मोह, स्मृतिभ्रंश, बुद्धिनाश एवा सर्वनाश का कारण है ॥४४॥
तरङगायिता अपीमे सङ्गात् समुत्रायन्ते ।
यह (काम क्रोध मोह आदि ) पहले तरंग की तरह आकर समुद्र (की भान्ति) हो जाते हैं(बहुत जल्दी मन को घेर लेते हैं ) ॥४५॥
कस्तरति कस्तरति मायाम् यः सङ्गं त्यजति यो महानुभाव् सेवते निर्ममो भवति ।
कौन तरता है कौन तरता है, माया से? जो सब संगों का त्याग करता है, जो महापुरुषों की सेवा करता है, जो ममता रहित होता है ॥४६॥
यो विविक्तस्थानं सेवते यो लोकबन्धमुनमूनयति निस्त्रैगुण्यो भवति योगक्षेमं त्यजति ।
जो निरजन स्थान का सेवन करता है, लौकिक बन्धनों को तोड़ देता है, तीनों गुणों
से पार हो जाता है तथा जो योग और क्षेम का त्याग कर देता है जो प्राप्त न
हो उसकी प्राप्ती को योग और जो प्राप्त हो उसके संरक्षण को क्षेम कहा जाता है, अर्थ है न कुछ पाने की इच्छा न पाए हुए को बचाए रखने की इच्छा ) ॥४७॥
यः कर्मफलं त्यजति कर्माणि सन्नयस्स्यति ततो निर्द्वन्द्वो भवति ।
जो कर्म फल का त्याग करता है, (वह) कर्मों का भी त्याग कर देता है, तथा  निर्द्वन्द्व हो जाता है ॥४८॥
यो वेदानपि सन्नयस्यति केवलमविच्छिन्नानुरागं लभते ।
जो वेदों का भी त्याग कर देता है, केवल तथा अविच्छिन्न अनुराग ही रह जाता है 49
स तरति स तरति स लोकांस्तारयति ।
वह तैरता है, वह तैरता है, वह इस लोक को भी तारता है ।50
चतुर्थोऽध्यायः  ……………………………………………..………..…………….......................................……….….प्रेमनिवर्चनम
अनिर्वचनीयं प्रेमस्वरूपम् ।
प्रेम का स्वरूप अनिर्वचनीय है (बताया नहीं जा सकता) ।॥५०॥
मूकास्वादनवत् ।
गूंगे के स्वाद की तरह ॥५२॥
प्रकाशते क्वापि पात्रे ।
किसी (योग्य ) पात्र में प्रकाशित होता है ॥५३॥
गुणरहितं कामनारहितं प्रतिक्षणवर्धमानं अविच्छिन्नं सूक्ष्मतरं अनुभवरूपम् ।
यह (परम-प्रम-रूपा भक्ति) गुण रहित है, कामना रहित है, प्रति क्षण बढ़ती रहती  है, सूक्ष्मतर है तथा अनुभव रूप है ॥५४॥
तत्प्राप्य तदेवावलोकति तदेव शृणोति तदेव भाषयति तदेव चिन्तयति ।
उस ((परम-प्रम-रूपा भक्ति) (शक्ति) को प्राप्त कर, (प्रेमी भक्त) उसी को देखता, उसी को सुनता, उसी की बात करता, तथा उसी का चिन्तन करता है ॥५५॥
गौणि त्रिधा गुणभेदाद् आर्तादिभेदाद् वा ।
गौणी भक्ति गुण भेद से, तथा आर्तादि भेद से तीन प्रकार की होती है (तामसी  याने दम्भी, राजसी याने कुछ पाने के लिए, सात्विकी याने चित्त शुद्ध करने के  लिए। आर्तभक्ति जगत भोग से मुक्ति के लिए, अर्थार्थी प्रभु को प्राप्त करने के  लिए, जिज्ञासु प्रभु को पाने की तीव्र इच्छा- संयम की स्थिति से वैराग्य तक पहुँचा ) ॥५६॥
उत्तरस्मादुत्तरस्मात् पूर्व पूर्वा श्रेयाय भवति ।
पूर्व क्रम की भक्ति उत्तरोत्तर क्रम से श्रेयस्कर होती है (सात्विक  राजसिक से इत्यादि ) ॥५७॥
अन्य मात् सौलभं भक्तो ।
अन्य की अपेक्षा भक्ति सुलभ है ॥५८॥
प्रमाणान्तरस्यानपेक्षत्वात् स्वयं प्रमाणत्वात् ।
भक्ति स्वयं प्रमाण रूप है, अन्य प्रमाण की आवश्यक्ता नहीं ॥५९॥
शान्तिरूपात् परमानन्दरूपाच्च ।
भक्ति शान्ति तथा परमानन्द रूपा है ॥६०॥
लोकहानौ चिन्ता न कार्या निवेदितात्मलोकवेदत्वात् ।
लोकहानि की चिन्ता न करें क्योकि लौकिक तथा वैदिक (सभी कर्मों को ) प्रभु को  निवेदन कर देता है ॥६१॥
न तत्सिध्दौ लोकव्यवहरओ हेयः किन्तु फलत्यागः तत्साधनं च ।
(परन्तु) जब तक सिद्धि प्राप्त न हो (तब तक ) लोक व्यवहार हेय नहीं है किन्तु  फल त्याग कर कर्म करना, उसका (भक्ति का) साधन है ॥६२॥
स्त्रिधननास्तिकचरित्रं न श्रवणीयम् ।
स्त्री, धन , नास्तिक तथा वैरी का श्रवण नहीं करना चाहिए ( स्त्री शब्द से वासना का प्रतीक है) ॥६३॥
अभिमानदम्भादिकं त्याज्यम् ।
अभिमान, दम्भ आदि का त्याग करना चाहिए ॥६४॥
तदर्पिताखिलाचारः सन् कामक्रोधाभिमानादुकं तस्मिन्नेव करणीयम् ।
सब आचार भगवान को अर्पण कर देने पर भी यदि काम क्रोध अभिमानादि हों तो उन्हें  भी भगवान के प्रति ही करना चाहिए ॥६५॥
त्रिरूपभङ्गपूर्वमकम् नित्यदास्यनित्यकान्ताभजनात्मकं प्रेम कार्य प्रेमैव कार्यम् ।
तीन रूपों को भंग कर, नित्य दास अथवा नित्य कान्ता भक्ति से प्रेम करना ही  कार्य है, प्रेम करना ही कार्य है (तीन रूप का अर्थ स्वामी, सेवा और सेवकया प्रियतमा, प्रियतम तथा प्रेम ) ॥६६॥
पञ्चमोऽध्यायः  ……………………………………………………………..............................................………मुख्यभक्तिमाहिमा
भक्ता एकान्तिनो मुख्याः ।
एकान्त भक्त ही मुख्य (श्रेष्ठ ) है ( एकान्त - जिसका प्रेम केवल भगवान
के लिए हो ) ॥६७॥
कण्ठावरोधरोमञ्चाश्रुभिः परस्परं लपमानाः पावयन्ति कुलानि पृथिवीं च ।
(ऐसे महापुरुष ) कण्ठावरोध, रोमाञ्च तथा अश्रुपूर्ण नेत्रों से परस्पर सम्भाषण  करते हुए अपने कुलों तथा पृथ्वी को पवित्र करते हैं ॥६८॥
तीर्थिकुर्वन्ति तीर्थानि सुकर्मी कुर्वन्ति कर्माणि सच्छास्त्रिकुर्वन्ति शास्त्राणि ।
ऐसे महापुरुष ) तीर्थों को सुतीर्थ, कर्मों को सुकर्म तथा शास्त्रों को सत्  शास्त्र करते हैं ॥६९॥
तन्मयाः ।
वह तन्मय है (उसमें प्रभु के गुण परिलक्षित होने लगते हैं ) ॥७०॥
मोदन्ते पितरो नृत्यन्ति देवतः सनाथा चेयं भूर्भवति ।
(ऐसे महापुरुष के होने पर )पितर प्रमुदित होते हैं, देवता नृत्य करने लगते हैं  तथा पृथ्वी सनाथ हो जाति है ॥७१॥
नास्ति तेषु जातिविद्यारूपकुलधनक्रियादि भेदः ।
उन में जाति, विद्या, रूप, कुल, धन तथा क्रियादि का भेद नहीं होता ॥७२॥
यतस्तदीयाः ।
क्योंकि सभी भक्त भगवान के ही हैं ॥७३॥
वादो नावलम्ब्यः ।
वाद विवाद का अवलम्ब नहीं लेना चाहिए ॥७४॥
बाहुल्यावकाशत्वाद अनियतत्त्वाच्च ।
क्योंकि बाहुल्यता का अवकाश है तथा वह अनियत है ( विवाद भक्ति के लिए नहीं  , प्रतिष्ठा के लिए होते हैं ) ॥७५॥
भक्तिशस्त्र्राणि मननीयानि तदुद्बोधकर्माणि करणीयानि ।
(अब प्रधान सहाय्य )। भक्ति शास्त्रों का मनन, तथा उदबोधक कर्मों को करना ॥७६॥
 सुखदुःखेच्छालाभादित्यके प्रतीक्ष्यमाणे क्षणार्धमपि व्यर्थ न नेयम् ।
सुख दुख, इच्छा, लाभ, आदि का त्याग हो जाए, ऐसे समय की प्रतीक्षा करते हुए आधा क्षण भी व्यर्थ नहीं गवाना चाहिए ॥७७॥
अहिंसासत्यशौचदयास्तिक्यादिचारित्रयाणि परिपालनीयानि ।
अहिंसा, सत्य, शौच, दया, आस्तिकता, आदि का परिपालन ॥७८॥
सर्वदा सर्वभावेन निश्चिन्तैः भगवानेव भजनीयः ।
सर्वदा, सर्वभावेन, निश्चिन्त, भगवान का ही भजन करना चाहिए ॥७९॥
स कीर्त्यमानः शीघ्रमेवाविर्भवत्यनुभावयति भक्तान् ।
वह (भगवान) कीर्तित होने पर शीघ्र ही प्रकट होते हैं ( तथा भक्तों को ) अनुभव  करा देते हैं ॥८०॥
त्रिसत्यस्य भक्तिरेव गरीयसी भक्तिरेव गरीयसी ।
तीनों सत्यों में भक्ति ही श्रेष्ठ है ( सत्य स्वरूप प्रभु को मन वाणी तथा  तन से भक्ति ही प्राप्त करा सकती है ) ॥८१॥
गुणमाहात्म्यासक्ति रूपासक्ति पूजासक्ति स्मरणासक्ति दास्यासक्ति
सख्यासक्ति वात्सल्यसक्ति कान्तासक्ति आत्मनिवेदनासक्ति तन्मयतासक्ति
परमविरहासक्ति रूपा एकधा अपि एकादशधा भवति ।
एक होते हुए भी (भक्ति ) ग्यारह प्रकार की है । गुणमहात्म्यासक्ति ( जगत को  भगवान का प्रकट रूप जान कर उसमें आसक्ति), रूपासक्ति ( इन्द्रियातीतचैतन्यस्वरूप, आनन्दप्रद, सत् रूप में आसक्ति), पूजासक्ति, स्मरणासक्ति,
दास्यासक्ति (स्वयं को प्रभु का दास मान कर), साख्यासक्ति (प्रभु सबके मित्र  हैं ऐसा जानकर उसमें आसक्ति), कान्तासक्ति(एक प्रभु ही पुरुष हैं, बाकि सब  प्रियतमा हैं), वात्सल्यासक्ति(प्रभु को सन्तान मान कर ), तन्मयासक्ति (प्रभु में तन्मय , उनसे अभिन्नता का भाव ),आत्मनिवेदनासक्ति (प्रभु में सर्वस्व  समर्पण कर देने में आसक्ति )। परमविरहासक्ति (प्रभु से वियोग का अनुभव करकेउनसे पुनः मिलन के लिए तड़प के प्रति आसक्ति)। ॥८२॥
इत्येवं वदन्ति जनजल्पनिर्भयाः एकमतः कुमार व्यास शुख शाण्डिल्य
गर्ग विष्णु कौण्डिन्य शेषोध्दवारुणि बलि हनुमद विभीषणादयो भक्त्याचार्याः ।
सभी भक्ति के आचार्य, जगत निन्दा से निर्भय हो कर, इसी एक मत के हैं। (सनत् )  कुमारादि, वेदव्यास, शुकदेव, शाण्डिल्य, गर्ग, विष्णु कौडिन्य, शेष, उद्धवआरूणि, बलि, हनुमान, विभीषण ॥८३॥
य इदं नारदप्रोक्तं शिवानुशासनं विश्वसिति श्रध्दते स भक्तिमान् भवति सः प्रेष्टं
लभते सः प्रेष्टं लभते ।
जो इस नारद कथित शिवानुशासन में ( अर्थ यह शिव से शुरु हुई विद्या है, नारद  केवल ईसका कथन कर रहे हैं ) विश्वास तथा श्रद्धा रखता है वह प्रियतम को पाता  है, वह प्रियतम को पाता है ॥८४॥
॥ॐ…………………………………………………………….……................................…………..नमः भगवते वासुदेवाये ॥